जागते रहो, जगाते रहो
सुनसान गहराती
कालिमा की रात | ठीक-ठाक की आवाज के साथ जागते रहो, जगाते रहो का कर्णभेदी कर्कश
स्वर.....| गलियारों में रात का पहरेदार,अलख जगाते......|
सुनते है हम सब
जिज्ञासा उठी.....क्यों रात भर जगाता रहता है | शांति से सोने के लिए तो उसको वह
काम दिया गया है फिर क्यों हमें जगाता रहता है |
साधना के क्षेत्र
में सतत जागरूकता जरुरी है | हम भगवान् के महावाक्य सुनते है | कदम-कदम पर ताकीद
की जाती है – सावधान ! समय कम है, गफलत मत करो | जगाना जरुरी है, क्योंकि पलक
झपकते सबकुछ बदल सकता है | चिर संचित साधना विकृतियों वश पल भर में नष्ट हो सकती
है | जीवन-यात्रा में अपना वाहन निश्चित ही बड़ी सतर्कता से चलना है | कौन, कब कहन,
क्या हो जाए कहना मुश्किल है | सावधानी हटी, दुर्घटना घटी |
कहते है –महात्मा
बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे ज्ञानोदेश कर रहे थे | एक मक्खी चेहरे पर बैठी तो
उसे बुद्ध ने उदा दिया | मक्खी के उड़ने के बाद भी लगातार बुद्ध को वही क्रिया
दोहराते देख उनके शिष्य आनंद ने पूछा- भंते ! मक्खी तो है नहीं फिर ऐसा उपक्रम
बार-बार क्यों ? बुद्ध ने कहा- पहले तो हाथ अपने आप उठ गए थे बिना मेरे ध्यान किये
| अब इसे मै ध्यान से उठा रहा हु कि मैंने कैसे उड़ाया था |
साधना का परिमित
क्षेत्र है | इसकी सूक्षमता को समझाने के लिए चतुर्मुखी बनना ही पड़ता है | यघपि
जीवन के किसी भी क्षेत्र में दूरदर्शिता के बिना सफलता संभव नहीं है, तथापि साधना
के क्षेत्र में साधक को अपने मन, वाणी, कर्म एवं तीक्ष्ण द्रष्टि रखनी पड़ती है |
करे स्वयं को सावधान
बार-बार गलती के
बावजूद स्वयं को पुरुषार्थी कहते रहना-यह पुरुषार्थी का यथेष्ठ लक्षण नहीं है |
अतः पुरुषार्थी को चाहिए कि वह विगत अनुभवों से सीखकर स्वयं को इतना सावधान करे कि
व्यर्थ विकल्प के शत्रु उसके राज्य में घुसपैठ नहीं कर सके | अटेन्सन के पहरेदार
झपकी भी न ले सके | अपनी गुप्तचर संस्थाए सम्पूर्ण सम्यक सूचनाये प्रदान करती रहे
| सुरक्षा सेनाये सशक्त हो | कोई घर का बने रहे ताकि आपात काल में सहयोग लिया जा
सके
सतत जागरूकता के
साथ-साथ सहज सजगता भी हो –
इन चक्षुओ के खुले
रहने को सदा जागरण नहीं कहते | बाहर के नेत्र तो खुले है किन्तु ज्ञान के, ध्यान
के एवं समझदारी तथा सावधानी के नेत्र बंद है | हम आम बोल-चाल की भाषा में प्रयोग
करते है कि मै क्या करूँ | ऐसा करना नहीं चाहता था लेकिन कर डाला | उससे मेरा
वैमनस्य नही है लेकिन मुहं से निकल गया, वैसे मेरा भाव ऐसा नहीं था यानी मै ऐसा
चाहता नहीं था, हो गया, कर बैठा ,बोल दिया आदि-आदि | इसे ही सुषुप्त अवस्था कहते
है | मानसिक पराधीनता या प्रभूत होना यही तो है | कर्मेन्द्रियों की यही तो दासता
है | यही तो है मन की व माया की गुलामी | संस्कारो की यही चाकरी है |
एक कुशल सैनिक की
तरह साधक को सदा सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा विश्वामित्र की तपस्या की
भांति चिरसंचित परिश्रम आँख खुलते ही व्यर्थ हो सकता है | अन्तरनेत्र खुले रहे
किसी भी संभावित घटना को भली भांति देखने व समझने के लिए | जैसे माँ भोजन पका रही
हो फिर भी सहज ही खेलते हुए बच्चे की ओर ध्यान रहता है | स्नेह संबंधो में परस्पर
तादात्म्य स्थित होती है | शब्द टंकण करते टाइपिस्ट का ध्यान अपने कर्म में सहज ही हो जाता है |
सतत जागरूकता अर्थात
भय व तनाव से आन्तंकित होना नहीं – यहाँ एक बात स्पष्ट समझने की है की सतत
जागरूकता को भय और तनाव से नहीं जोड़ा जाना चाहिए | भय चाहे वह काल का हो या माया
का अथवा कुछ अन्य | प्रायः भय व आतंक के क्षणों में और ही मतिभ्रम व
किंकर्तव्यविमूढ़ होने की सम्भावना होती है | ऐसे मौके पर निरंतर सतर्कता की कोई
गारंटी नहीं, और तनाव के क्षणों में तो धैर्य एवं विवेक की नाव करीब अब उलटी कि तब
उलटी जैसी स्थिति होती है | अतः ज्ञान का दीप सतत प्रज्वलित रहे, जिससे प्रगति का
पथ आलोकित रहे, परिस्थितियों व विघ्नों का
अँधेरा कितना घाना क्यों न हो वह प्रकाश के समक्ष कुछ भी नहीं | ध्यातव्य
बाते-ईश्वरीय ज्ञान में भी कोई पुरुषार्थी कितना ही वरिष्ठ , दीर्घभ्यासी एवं
पारंगत क्यों न हो, उसकी सेवा बहुत अच्छी भी क्यों न हो किन्तु सभी को ही अंतिम
क्षणों तक सावधान रहने की जरुरत है | क्योंकि विपरीत परिस्थितियों में लगातार
लड़ते-लड़ते मन का सयंम व धैर्यता का बांध टूट सकता है | इसलिए ईश्वरीय महावाक्य है
कि तुम्हे जब तक जीना है, ज्ञानामृत पिटे रहना है | अतः ज्ञान और योग के बल से
कुसंस्कारों को व माया के सूक्ष्म चालो से निरंतर सावधान रहने की बड़ी जरुरत है |
सहज सजगता अर्थात् स्मृति स्वरुप
आत्माभिमानी स्थिति
एवं परमात्म स्मृति के साथ अपने कर्तव्य की सहज स्मृति हमारे मन में निरंतर रहे |
जिसे हम स्वरुप, स्वधर्म,स्वपिता,स्वदेश,स्वलक्ष्य,स्वलक्षण के रूप में जानते है |
यही सहज स्मृति स्वरुप बनना ही सहज सजगता है |
ध्यान दे कि हमें
पुरुषार्थ में किन-किन बातो के प्रति निरंतर सजग रहने की ईश्वरीय प्रेरणा मिली
है...... |
स्वयं के प्रति जागरूकता
स्वयं को आत्मा
निश्चय कर इस देह के द्वारा पुण्य अर्जित करना, यही पुरुषार्थ है | परमात्मा को
करनकरावनहार मानकर स्वयं को निमित्त करनहार समझकर साक्षी हो पार्ट बजाना- यह स्वयं
के प्रति जागरूकता है | मै आत्मा इस देह साधन के द्वारा कर्म कर रहा हूँ | मै
आत्मा राजा इस देह की राजधानी में भ्रकुटी सिंहासन पर विराजमान होकर शासन कर रहा
हूँ | मेरे अधीन समस्त कर्मेन्द्रियांहै | मै आत्मा करता देह प्रकृति से अलग हूँ
.......|
समय के प्रति जागरूकता
समय,शक्तियाँ एवं
संकल्प सबसे अनमोल खजाने है किन्तु संगमयुगी समय तो युगों में सर्वश्रेष्ठ एवं
परमकल्याणकारी तथा बहुत ही महत्वपूर्णहै | इसका सदुपयोग अर्थात्सदा-सर्वदा
सम्पूर्ण कल्प में पद्मापदम भाग्यशाली बनना |
साध्य-आराध्य एवं साधना के प्रति जागरूकता
परमात्मा से आत्मा
का सर्व संबंधो से स्नेहयुक्त मिलन होता रहे | श्वास एवं संकल्प में निरंतर
ईश्वरीय स्मृति रहना प्रायः यही प्रत्येक साधक की सतत साधना रहती है |
संस्कारो एवं संकल्पों के प्रति जागरूकता
बिना किसी अपेक्षा
के सर्व के प्रति सदभावना रखते सर्व को सुख-शांति आदि का जो ईश्वरीय वारसा हमें
मिला है, सबमे बांटते जाना तथा संकल्प, वचन व कर्म से सुखदायी बनना – यही हमारा
सामाजिक उत्तरदायित्व है | हमारा जीवन सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बन सके – ऐसा
आदर्शमय जीवन एवं जीवन एवं तन-मन-धन से स्वर्ग की स्थापना में समर्पित रूप से लग
जाना निश्चित ही समाज एवं संबंधो के प्रति सजगता है |
उपर्युक्त विवेचन से
यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि यदि हम सबकी उपेक्षा करके साधना पथ पर बढ़ेंगे तो
निश्चित ही यह अदूरदर्शिता होगी | इस आध्यात्मिक याता में सफलता से गंतव्य पर पहुँचने
के लिए सम्पूर्ण रूप से खुले रहे ताकि हर संभावित घटना का सम्यक रूप से सामना किया
जा सके
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