जब मनुष्य
इन सत्यताओं को भली-भांति समझ जाता है कि-यह संसार परिवर्तनशील है और इसके सभी
पदार्थ क्षण भंगुर तथा नाशवान है | मनुष्य को पहले-से यह भी ज्ञात नहीं है कि उसके
जीवन की अवधि क्या है, तब वह इस संसार और यहाँ के व्यक्तियों तथा पदार्थो के प्रति
अनासक्त भाव वाला हो जाता है | जैसे नाव नदी में रहते हुए भी उसके ऊपर रहती है,
विअसे ही उसका मन भी उपराम-सा रहता है | उसमे लोभ और क्षोम शांत हो जाते है | वह
दूसरो से छीना-झपटी नहीं करता | सांसारिक वैभवों और इन्द्रियों के विषयों से लतपत
नहीं होता है, ना ही मित्रो-सम्बन्धियों के अनुराग की दलदल में धंसता है | वह
हल्का होकर उड़ता-सा रहता है | वह बैल की तरह तब भर कर खाने की बजाये दो रोटी खाकर
ईश्वरीय स्मृति का आनंद लेता है | गरीब है तो क्या हुआ, भगवान् तो उसका साथी है |
गुण......गुण....की धुन लगा ले
उस
विरक्त भाव या उपराम वृत्ति के साथ-साथ जब उसे इस बात में भी दृढनिश्चय हो जाता है
कि मनुष्य का सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों स्वयं उसी के कर्माधीन है, स्वर्ग या नरक
की प्राप्ति उसके अपने दिव्य गुणों या अवगुणों ही के परिणामस्वरूप होती है, तब वह
सद्गुणों की धारण में और आसुरी गुणों के त्याग में पूरा ध्यान देता है | ये दुनिया
कर्मो का लेखा-जोखा है और सभी सम्बन्ध कर्मो ही के ताने-बाने से जुड़ते या टूटते है
– ऐसा जानकार आत्मा और परमात्मा तथा साधना और सिद्धि के ज्ञान से युक्त होकर,, वह
सद्गुणों का विकास करने में ही लगा रहता है क्योंकि सूक्ष्म आत्मा के साथ सूक्ष्म
गुण ही जाते है,बाकी बैंक बैलेंस तो बांको में ही धरे रह जाते है और
पुत्र-पौत्र,यार-दोस्त भी शव की अग्नि में अपनी-अपनी लकड़ी डालकर या सामग्री होम
करके अपनी-अपनी राह लेते है | धुआं तो आकाश में बिखर जाता है और राख को नदी में
प्रवाहित करके, सब रो-धो कर पाने-अपने धंधे में लग जाते है | जिस देह को को
सम्बन्धी जन चुमते और गले लगाते थे या जिससे हाथ मिलाते थे,अब छु जाने पर भी नहाकर
शुद्ध होना जरुरी यह सब तमाशा देखकर मन को समझाता है कि हे मन तू सद्गुण धारण कर |
अरे मन,यह काम कल पर न छोड़ | क्या पता कल कोई दुर्घटना घाट जाए, व्याधि आ जाए,
क्षमता या सामर्थ्य ही न रहे | इसलिए-हे मन, प्रभु से प्रीति लगा ले, आत्मिक
ज्योति जगा दे और दिव्य गुणों का आसन – सिंहासन बनाकर उस पर स्थित हो समाधि लगा ले
| तू लफड़ा को छोड़ और अब अपनी दिशा को मोड़ | “गुण-गुण........” की धुन लगा ले |
सद्गुण
बी अनेक है और उनकी श्रेणियां भी अनेक है | कई सद्गुण ऐसे है जो मनुष्य की
कार्यक्षमता और कार्य-क्षमता को बढ़ाते है और अधिक उत्पादन और सम्रद्धि के निमित्त
बनते है | उघम या मेहनत, कार्य में लगन,उमंग-उत्साह उत्तरदायित्व इत्यादि इस
श्रेणी के गुण है | कई गुण ऐसे भी है जो मनुष्य को तनाव-मुक्त और शांत तथा शीतल
बनाते है | तृष्णाओं का त्याग, संतुष्टता,स्नेह ,सहयोग भावना , सहनशील , सकारात्मक
चिंतन इस श्रेणी के गुण है | एनी ऐसे भी कई गुण है जो प्रसाशन या व्यवस्था के कार्य
में निपुण बनाते है | योजनाबद्ध कार्यविधि,निष्पक्ष,भाव,न्यायशीलता,निर्णय इत्यादि
ऐसे गुण है | कुछेक गुण ऐसे भी है जो मनुष्य के व्यवहार को श्रेष्ठ बनाते है |
मधुरता,गंभीरता और रमणीकता,सेवा-भाव इस प्रकार के गुण है | कुछ गुण उसके व्यवसायिक
जीवन को स्वच्छ और योग्यताओं से भरपूर बनाते है | ये सभी गुण एक-दूसरे के
परिपूरक,प्रष्ठापोशक और सहायक होते है | इन सभी को धारण करने से ही जीवन महान बनता
है और परिपूर्णता की ओर जाता है |
मानसिक निर्मलता
यों तो
सभी गुणों का अपना-अपना महत्व है | परन्तु इन सभी में मानसिक निर्मलता नामक जो
सद्गुण है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है | इसलिए कहा गया है कि “ मन साफ़ हो तो मुराद
हासिल होती है |” इस एक गुण में अन्य अनेकानेक गुण समाये हुए है | आज संसार में इस
एक के न होने से ही अनेक दुर्गुण पनप रहे है | इस बात को थोडा स्पष्ट करना यहं
प्रासंगिग होगा | मानसिक निर्मलता का एक उच्च स्टार ऐसा होता है जिसे हम
पारदर्शिता भी कहते है |पारदर्शिता हरेक को अपनी ओर आकर्षित तो करती ही है परन्तु
साथ-साथ उससे अनेकानेक लाभ है | उदाहरण के तौर पर, मान लीजिये कि किसी समाज में
हरेक व्यक्ति को यह स्पष्ट आभास होगा कि जिससे वह बात कर रहा है वह क्या सोच रहा
है अथवा उसकी वृत्ति क्या है ? दूसरे व्यक्ति को भी यह आभास होगा कि हम दोनों क्या
सोच रहे है, क्या कहना चाहते है, उसके पीछे हमारा भाव क्या है ? यह स्पष्ट बोध
होगा कि हमारा परस्परिक वास्तविक स्नेह कितना है ? मनुष्यों का स्नेह पशु-पक्षियों
को पहुंचेगा,मानो कि भाषा के बिना ही आदान-प्रधान हो रहा है | भाषा तो एक अतिरिक्त
माध्यम होगा | निर्मल मन एक-दूसरे के निकट होते है |
और
घनिष्ठता अनुभव करते है | इस गुण की अधिक गहरे में जाने पर आप इस निष्कर्ष पर कि
ऐसे समाज में बेईमानी,धोखेबाजी,मक्कारी,फरेब,झूठ,बनावटी-पान,दिखावा,दंभ,किसी को
हाली पहुचाने का संकल्प, बात छिपाने की कोशिश इत्यादि नहीं होंगे | जब हरेक
व्यक्ति यह जानता, मानता और अनुभव करता होगा कि दूसरे भी उसके मन के बारे में
स्पष्ट रीति जानते है कि हमारे मन के बारे में स्पष्ट रीति जानते है कि हमारे मन
में क्या चल रहा है, तब वह उनसे छिपाएगा कैसे या उनसे धोखा कैसे कर सकेगा, झूठ
कैसे या उनसे धोखा कैसे कर सकेगा, झूठ कैसे बोल सकेगा ? आज संसार में जो बेईमानी,
रिश्वतखोरी, इर्ष्या-द्वेष,हिंसा की भावना, वैर-विरोध,छिना –झपटी या स्वार्थ है वे
सब तो ऐसे समाज में ओंगे ही नहीं क्योंकि हरेक का मन इतना साफ होगा कि वह दूसरे की
मानसिक गतिविधियों को ऐसे ही स्पष्ट रीति देख सकेगा जैसे पारदर्शी शीशे के पीछे की
हरेक चीज स्पष्ट दिखाई देती है | वास्तव में हरेक को पारदर्शिता की स्थिति ही इस
कारण प्राप्त होगी कि उनमे ये सब बुराइयाँ होगी ही नहीं | आज मनुष्य अपने व्यवहार
में बाहर से कुछ और है और भीतर से कुछ और | उसका दोहरा चरित्र है | उसने कई मुखौटे
लगा रखे है | वह दूसरे को बेवकूफ बनाता-फिरता है | चरित्र-भ्रष्ट होने पर भी उसने
अपने व्यक्तित्व का दूसरो पर अच्छा प्रभाव दाल रखा है वह दंभी है, स्वयं को भी
धोखा देता है और दूसरो की आँखों में भी धुल डालता है | जिस समाज में हरेक व्यक्ति
का मन निर्मल होगा, उसमे ये सब एक-हजार एक पाप हो ही नहीं सकेगे, उनका अस्तित्व ही
नहीं होगा | वहां के लोगो के शब्द-कोष में ये शब्द ही नहीं होंगे और उनकी भाषा या
भावभिव्यक्ति में क्रोध, इर्ष्या,द्वेष
इत्यादि नाम मात्र,लेश मात्र या तनिक भी नहीं होंगे अतः ये सभी प्रकार के
अपराध,दंड,पाखण्ड, चण्ड प्रचण्ड इत्यादि भी अनुपस्थितीत होंगे | न कोई किसी का
विरोधी होगा, न प्रतिरोधी | न सत्ता दल होगा न विरोधी दल | न पुलिस होगी, न जेल
क्योंकि होगा सभी में तालमेल |
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