शोध शब्द का अर्थ होता है खोज परन्तु जब इस शब्द से पहले
‘प्रति’ अव्यय लग जाता है तो इसका अर्थ हो जाता है बदला | लेने वाला एक प्रकार से
शोध (खोजबीन) तो करता है परन्तु वह सामने वाले की करता है |इस अर्थहीन खोज का उसे
कोई मूल्य नहीं मिलता बल्कि वह अपने अमूल्य पालो को नष्ट कर देता है | मूल्य तब
मिले जब वह प्रतिशोध की बजाय आत्मशोध करे
अर्थात स्वयं की जाँच करे | इससे उसके समय और शक्तियों पर व्यर्थ की आंच नहीं आएगी
कीमती संकल्प
हुए स्वाहा
बदला शब्द भी हमें सन्देश दे रहा है कि हम क्या मांग रहे है
? बद माना बुरा और ला माना लाओ | भावार्थ
यही हुआ कि हम आह्वान कर रहे है कि बुरे
को हमारे पास ले आओ | जिसके भीतर बदला लेने की अग्नि सुलगती है उसे यह पता ही नहीं
चलता की इसे सुलगाये रखने के लिए वह अपने कितने कीमती संकल्प ईधन के रूप में इसमें
झोंक चूका है | झोकते रहने में महीनों और वर्षो गुजर जाते है | इस अन्तहीन निरर्थक
प्रक्रिया में वचन और कर्म की शक्ति हां हास भी कम नहीं होता |
बदले अपनी
चाहना को
किसी ने हमारी चाहना के प्रतिकूल व्यवहार किया और हम बदले
पर उतारू हो गए, क्या हमारी हरेक चाहना ठीक है ? हम दुसरे को बदलने की बजाये अपनी
चाहना को क्यों नहीं बदलते ? यह हमारा झूठा अहंकार है कि हम बदला लेकर उसका बहुत
कुछ बिगाड़ देंगे, हाँ हमारा बहुत-कुछ अवश्य बिगड़ता जा रहा है | क्या हमने कभी
एकान्त में बैठकर आकलन किया कि इस प्रतिशोध की प्रवृत्ति ने हमारा कितना नुक्सान
किया ? पिछले 10 सालो से (कम या अधिक समय से) हम इस बोझ को उठाये-उठाये फिर रहे
है, क्यों ? क्या इसके बदले कोई धन, पड़ या मान मिला ? नहीं ना, फिर इसे ढोने की
मेहनत क्यों ?
टूटते धीरज को
संभालिये
हमें जीवन में कोई अभाव है, इसका कारण जिसे भी समझेगे,उसके
प्रति क्रोधाग्नि अन्दर भड़कती रहेगी परन्तु जिसे कारण समझ रहे है वह निर्दोष है,
दोषी तो मेरा वह कर्म है हो मुझसे हो गया था और अब उसी कर्म का कड़वा फल सामने पाकर
धीरज टूट रहा है | मुझे टूटते धीरज को सम्भालना
है, न की धीरज खोकर बदला लेने का एक नया विकर्म और खड़ा कर लेना है
पुरानी स्मृतियों
का धुआ और गर्द भीतर उठते रहते है की उसने ये किया इसने यह नहीं दिया, अमुक ने यह बोला आदि-आदि |
जैसे गर्द और धुंएँ से भरे वातावरण में कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं देता, इसी प्रकार
हमारी समझ ही धुंधली हो जाती है | हमें सूझता ही नहीं कि क्या ठीक है, क्या गलत है,
क्या करना है, क्या नहीं करना | यह धुंआ हेट तो परखने और निर्णय करने की शक्तियाँ
कर्म में आ सके |
स्मृतियाँ नहीं, जहर बुझे तीर
बाले की भावना एक धीमा जहर है जिसे पात्र में डाले बिना ही
हम बूंद-बूंद पीते रहते है और अमर आत्मा को क्षीण कर उसे मृत समान बना लेते है |
जिनके प्रति बदले की आग को संकल्पों की हवा दे-देकर सुलगाये बैठे है, वे हजारो मिल
दूर बैठे चैन की नींद सो रहे है, उनके चित्त में हमारी स्मृति तक नहीं, वे उस घटना
को दफना चुके है पर हम उसे रोज कब्र से निकल पुनर्जीवित करने में समय लगा रहे है |
जिनके प्रति यह आग है वे वर्षो से हमें मिले नहीं आगे कभी मिलें सम्भावना नहीं, वे
मिले भी तो कुछ मांगेगे नहीं, हमें कुछ देना नहीं, फिर भी हम उनकी उपस्थिति के
भ्रम में जीते है और नाहक उनके कदमो की आहात सुनते रहते है | जला दीजिये इन स्मृतियों
को, ये स्मृतियाँ नहीं,जहर बुझे तीर है जो आत्मा स्वयं ही स्वयं को चुभा रही है |
गहरे उतर जाएँ
आत्मचिंतन में
प्रतिशोध की दावा है आत्मशोध | हम आत्मा के चिंतन में गहरे
उतर जाएँ | भीतर के नेत्र से आत्मा के उजले स्वरूप को देखते हुए उसमे डूबे और
महसूस करे कि चमचमाते ज्योतिबिंदु पर प्रतिशोध के काले दाग टिक ही नहीं सकते | ये
दाग तो आत्म स्वरुप की विस्मृति के कारण है | अपने इस उजले रूप से इस प्रकार बाते
करे, रूहरिहान करे, “ किसी से बदल लेंगे तो वह फिर हमसे लेगा, इस प्रकार यह कड़ी
प्राणान्त तक या उसके बाद भी चलती रहेगी |
क्या ही अच्छा हो , हम अपने को बदल ले | अपनी उर्जा अपने परिवर्तन में खर्च करे |”
एक कहानी याद आती है –
एक राजा ने मंदिर में प्रवेश करते समय अपनी पादुकाएं
द्वारपाल के सरंक्षण में छोड़ दी | द्वारपाल ने देखा, रेशममढ़ी पादुकाओं पर
ओसकणों के साथ कुछ धूलकण भी आ गए है | उसने आने अंगोछे से पोछने का यत्न किया | अंगोछा मैला था,
पादुकाएं थोड़ी और मैली हो गई | राजा लौटा,द्रष्टि पादुकाओं पर पड़ी, क्रोध आ गया,
कड़ककर पूछा, किसने मैली की ? द्वारपाल भयभीत होकर बोला, क्षमा करे महाराज, सेवक से
यह भूल..... वाक्य पूरा होने से पहले ही उसके सर प् पादुका का तीव्र प्रहार हुआ,
सर फटा, रक्त बहने लगा | राजा तो राजभवन चल गया लेकिन प्रतिशोध की ज्वाला में जलता
हुआ द्वारपाल अपने घर गया रो अन्न-जल ग्रहण करना छोड़ दिया | पत्नी ने यह देखा तो
समझाया, इस अग्नि में आप अपनी शक्तियों को क्यों नष्ट कर रहे हो, बदला लेने का
उपयुक्त मार्ग मै बताती हूँ, उठिए | वे उठे , स्नान किया, भोजन किया और पत्नी के कहे
अनुसार विद्याध्ययन के लिए वाराणसी चले गए | दस वर्ष के कठोर अध्ययन के बाद आचार्य
बनाकर लौटे |
झुक गए राजा
राजा ने अपनी अस्वस्थ माता के उपचार के लिए यज्ञ किया और
इन्ही आचार्य को यज्ञ का ब्राह्मण नियुक्त किया | यज्ञ संपन्न होने के बाद दक्षिणा
में उन्होंने राजा की कोई भी पुराणी पादुकाएं मांगी और प्रतिदिन उनकी पूजा करने
लगे | एक दिन राजा ने अपनी पुराणी पादुकाओं के प्रति इतनी श्रद्धा और लगाव का कारण
पूछा | द्वारपाल ने कहाँ राजन, इन्ही की कृपा से आज इस पद पर विभूषित हूँ और फिर
पूरी कहानी सुना दी | इस विलक्षण प्रतिशोध से राजा अभिभूत हो उठे | उन्होंने
द्वारपाल का सम्मान किया और राजपुरोहित का पद प्रदान कर दिया | द्वारपाल ने
प्रतिशोध की अग्नि में जलने की बजाये स्वयं के शोध का मार्ग प्रकाशित किया और इस
प्रकाश ने उसे इतना चमकाया कि राजा को स्वयं झुकना पड़ा |
भगवान शिव भी कहते है –
“सर्व
खजानों की व् श्रेष्ठ भाग्य की चाबी एक ही शब्द है ‘बाबा |’ यह चाबी अटक क्यों
जाती है ? क्योंकि राइट की बजाये लेफ्ट की तरफ घुमा देते है | स्वचिंतन की बहाए
परचिन्तन , स्वदर्शन के बदले परदर्शन ,
बदलने की बजाये बदला लेने की भावना रख चाबी उलटी घुमा देते है, तो खजाने होते हुए
भाग्यहीन खजाने पा नहीं सकते |”
चित्त पर रखे
उजली आत्माओं को
ईश्वरीय खजाने पाने के लिए चाबी सीधी तरफ घुमाएँ अर्थात
बदला लेने की बजाये बदलकर दिखाये, प्रतिशोध को आत्मशोध में बदले | जिन लोगो की
बुराइयाँ चित्त में राखी रहती है उनसे ही बदला लेने की भावनाए जागृत होती है | मान
लिया कि वो लोग बुरे है तो हम क्या चाहते है ?
क्या यह कि बुरे ही बने रहे ? जैसे कोई चीज मैली हो और हम सुबह-शाम यह राग
आलापते रहे, अमुक वस्तु बड़ी मैली है, बड़ी मैली है, तो क्या वह साफ़ हो जाएगी ? नहीं
ना | उसे मेहनत करके साफ़ करे या किसी से करवाए, तब तो उसके मेल के चिंतन में फंसी
हमारी वृत्ति बाहर निकलेगी | जो वृत्ति किसी के मेल का चिंतन कर रही है वह सार्थक
चिंतन, कर्म का चिंतन, ईश्वर का चिंतन कैसे कर सकेगी ? हम हर बंधन से मुक्ति चाहते
है तो फिर चित्त पर रखे इस मेल से भी तो मुक्त होने सीखे | जैस जमी हुई मेल को
उतारने के लिए बहुत रगड़ाई करनी पड़ती है,इसी प्रकार भीतर की मेल उतारने के लिए
बार-बार स्मरण करे, “कर्म की कलम जब भाग्य लिख रही थी तब इनके हिस्से जो आया, ये
कर रहे है | अन्य आत्माओं की तरह ये भी परमात्मा पिता के बच्चे है, मूल रूप में
उन्ही के समान गुणवान है,, उन्ही जैसा रूप इनका है | मेरा वो कर्म रुपी धागा जो
इनके पार्ट के साथ उलझ गया है योगबल से पूरा सुलझना ही है | मै आत्मा देख रही हूँ,
प्रकाश के कार्ब में ये आत्माएँ चमक रही है, मैंने चित्त पर से मैल की पोटली हटाकर
उस स्थान पर इन प्रकाशमान (उजली) आत्माओ को रख लिया है, चित्त पर रोशनी फ़ैल गई है
| वाह बाबा वाह, अपने चित्त को स्वच्छ कर दिया |”
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