दो संस्कृतियाँ है, दैवी और भौतिक | दैवी
संस्कृति में यघपि भौतिक मूल्यों को भी महत्व दिया जाता है लेकिन आध्यात्मिक मूल्य
उसकी आधारशिला है | भौतिक संस्कृति, भौतिक मूल्यों पर पूर्णरूपेण अवलंबित
है | उसमे आध्यात्मिक मूल्यों के
लिए कोई स्थान नहीं | वहां ‘स्व’ की नहीं, ‘पर’ की कोज है | उसे अपने विषय में
जान्ने की कोई चिंता नहीं है कि हम कौन है, कहाँ से इस स्रष्टि में आये ई और फिर
वापस कहाँ जायेंगे ? भौतिक संस्कृति में
पला व्यक्ति प्रकृति के रहस्यों को जान्ने के लिए पागल है | फलस्वरूप , छोटे से
अणु से लेकर विशाल सागर, अन्तरिक्ष,ग्रह नक्षत्रों के रहस्यों से वह परिचित हो गया
है लेकिन ‘स्वयं’ से सर्वथा अपरिचित है | प्रकृति की शक्ति को उसने जान लिया है
लेकिन अपनी शक्ति का उसे कोई ज्ञान नहीं | इस तरह स्व को खोकर उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है लेकिन
उस प्राप्ति का भला क्या अर्थ हो सकता है ! यह तो मुर्दे को बहुमूल्य वस्त्रों से
सजाने की तरह है | अध्यात्म-शून्य व्यक्ति की आत्म-ज्योति क्षीण हो जाती है | उसकी
आत्मा विकारो की तीव्र ज्वाला में जलकर काली हो जाती है | वह अपने आप को विकारो की
भीषण ज्वाला में जलाता रहता है तथा दूसरी आत्माओं को भी काम,क्रोध की अग्नि में
झुलसाता है | वह सच्चे अर्थो में ‘भस्मासुर’ है |
दैवी संस्कृति में पला मनुष्य भौतिक साधनों का
प्रबंध करेगा लेकिन उसके लिए चरम महत्व आध्यात्मिक मूल्यों का ही होगा | वह जड़ को
जला देता है अतः शाखाएं स्वतः हरी-भरी रहती है | ऐसे व्यक्ति अथवा समाज को भौतिक
और आध्यात्मिक दोनों सुखो की प्राप्ति हो जाती है लेकिन भौतिक मलयों को ही सब कुछ
मानने मानने वाला समाज दोनों सुखो को गवां देता है सतयुग,त्रेता की अपार भौतिक
संपदा आज कहाँ है ?
दैवी संस्कृति की पुनर्स्थापना करने के लिए
पतित-पावन परमपिता परमात्मा शिव पुनः गुप्त रूप में अवतरित हो चके है | वे ईश्वरीय
ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा द्वारा तमोप्रधन आत्माओं को सतोप्रधान बनाकर
उन्हें सुख-शांति से परिपूर्ण कर रहे है | ऐसी पावन आत्माएँ न तो दूसरो पर
काम-कटारी चलती है और न उन्हें क्रोधाग्नि में जलाती है | वे स्वयं अतीन्द्रिय
आनंद का प्याला छक कर पीती है और दूसरो को
सुखा शांति प्रदान करण अपने जीवन का चरम
लक्ष्य समझती है
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