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 आप हिम्मत का एक कदम बढाओं तो परमात्मा की सम्पूर्ण मदद आपके साथ होगी !

धर्म और कर्म का तालमेल


मानव आत्मा जब तक शरीर में है, कर्म से मुक्त नहीं हो सकती | उसमे भी युवावस्था सर्वाधिक कार्यशील अवस्था है | इस अवस्था में उसमे अतिरिक्त शक्ति होती है | यदि इस अतिरिक्त शक्ति का रचनात्मक कार्यों में प्रयोग न किया जाए अथवा युवकों को संतोष,शांति,सद्विचार देने वाला कोई उपाय न अपनाया जाये तो वह अतिरिक्त शक्ति या तो उन्हें बुरी आदतों में दाल देती है या वे उन शक्तियों का दुरूपयोग विध्वंसात्मक गतिविधियों में करते है | अतः कर्म के साथ धर्म अर्थात सद्गुणों की धारणा का संतुलन बाल्यकाल से ही अनिवार्य है | हम कह सकते है कि जब मानव सर्वाधिक कर्मशील हो तब उसका सर्वाधिक धर्मशील होना भी अनिवार्य है |
         
         धर्म कहता है, झुक जाओ 

मान लीजिये, दो गाड़ियाँ आमने-सामने है | दोनों के  चालको को अपने-अपने कार्य की जल्दी है | एक कहता है, तुम पीछे हटो , मै निकलू | दूसरा कहता है, नहीं, तुम थोड़े पीछे हट जाओ, पहले मैं निकल जाता हूँ | इस मै-मै में दोनों अकड़कर खड़े है | दोनों कर्मशील तो है,दोनों को अपने-अपने कार्यो की जल्दी तो है परन्तु दोनों में से एक भी धर्मशील हो अर्थात् धर्म की धारणा वाला हो , गुणों की धारणा वाला हो तो उन दोनों की मै-मै के दौरान दोनों के पीछे की और आ कहदी हुई 100 -100 गाड़ियों का समय भी बाख सकता है | धर्म कहता है, ‘झुक जाओ,बदल जाओ,गलती किसकी है, यह मत खोजो, समाधान कैसे अतीन्द्रिय सुख में झूलता है, झुकना ही जीवित की शान है, अकड़ना मुर्दे की पहचान है, यदि मेरे पीछे हटने से समाधान हो सकता है तो हटने को तैयार हूँ |’

यदि कर्म के साथ धर्म के इन उच्च भावो की धारणा हो तो मिनट में रास्ता साफ़ हो सकता है | जाम में फंसे विद्यार्थी,बीमार,ट्रेन या हवाई जहाज पकड़ने वाले यात्रीगण--- सभी लक्ष्य तक पहुँच सकते है परन्तु कोरे कर्मशील बनकर , धर्म को कर्म से जुदा करने से हम अनजाने में अपने और दुसरे के कर्मो को बाधित करते रहते है | इस धर्म को अर्थात् नम्रता को यदि वृद्धावस्था में धारण कर भी लेंगे तो उससे समाज को क्या फायदा होगा, इसकी जरुरत तो तब थी जब हम कार्यशील थे |

गुणों की धारणा ऊपर है या जीभ का स्वाद

भोजन खाना एक कर्म है पर इस कर्म के साथ धर्म अर्थात् इस धारणा का तालमेंल चाहिए कि मै ऐसा कुछ भी ना खाऊं जो दुसरे को पीड़ा दे | हमें देखना है की जीभ का स्वाद ऊपर है या गुणों की धारणा ऊपर है | कई लोग इसी स्वाद के वश पशु-हत्या करते है या करवाते है और तर्क देते है कि संसार का नियम है, एक प्राणी , दुसरे प्राणी को मारकर ही जिन्दा रह सकता है जैसे कि शेर यदि ना मारे तो खुद भूखा मर जाए, छिपकली,मेढ़क सभी अपने को जिन्दा इसी आधार पर रखते है | मानव की बुद्धिमानी देखिये, यदि उसे कहा जाये,ठीक है, तुम कहरे में शेर की नक़ल कर रहे हो तो वह तो जंगल में बिना बिछाये, ओढे जीवन गुजर कर लेता है, स्कूल नहीं जाता.......तुम भी उसकी तरह जंगल में रहो, खाओ , तब वह कहेगा , मै कोई जानवर हूँ क्या ? मै तो जानवरों से श्रेष्ठ हूँ, मुझे सभी  तरीके से रहने का हक़ है | इसका अर्थ है केवल कहते वक्त जानवर बनना चाहता है, शेष  समय नहीं |
           
         बढती अमर्यादा और घटती आयु

जानवरों में कोई मर्यादित रिश्ते नहीं होते | कोई माँ, बहन, बेटी नहीं होती | उनकी वंशवृद्धि  में किसी जाति, कुल, गोत्र की सीमाए,आयु या वर्ग का प्रश्न नहीं होता | ऐसे अमर्यादित जानवर का खून मानव को नहीं चदता, चड़ना तो माँस भी नहीं चाहिए पर जबरदस्ती चढ़ा लेता है, फिर परिणाम क्या सामने आ रहे है ? अमर्यादित  संस्कार भी पनपते जा रहे है, वह भी माँ, बहन,बेटी की मर्यादाओं को तिलांजली देकर स्वेच्छाचारी बन रहा है | जिन जानवरों का मांस  खता है उनकी आयु मानव की भेंट में बहुत कम होती है | जब  कम आयु वाली सेल (कोशिकाएँ) उसके शरीर में जायेंगी तो आयु तो कम होगी ही | अकालमृत्यु  के बहुत सारे कारणों में एक कारण यह भी है, हम दुसरो को मारकर अपनी भी जीने की घड़ियों को घटाते जा रहे है | अतः हम खाएं परन्तु दया, सहिष्णुता, सहानुभूति, धैर्य, स्वच्छता,संयम आदि गुणों की धारणा को साथ लेकर खाएं | कर्म और धर्म के इस तालमेल से स्वास्थ्य भी और आपसी सम्बन्ध भी सुखदाई  रहेंगे |
  
      दूसरो को ना  देख अपना प्रबन्ध करे 

सद्गुणों की धारणा ही धर्म है और अवगुणों को अपनाना ही अधर्म है | जब किसी को कहा जाता है कि आत्मा को गुणवान बनाओं, अवगुणों से उसे मैला मत करो तो बहुत- से लोगो का उत्तर होता है कि आज का माहौल ऐसा है कि ना चाहते भी अवगुण अन्दर चले जाते है | दूसरो की बुरी बातो का, ना चाहते भी असर आ ही जाता है, क्या करे ? विचार कीजिये, हम कही जा रहे है और रास्ते में गन्दा नाला होने के कारण या किसी पशु के मृत शरीर के पड़ा होने के कारण बहुत ही गन्दी बदबू चारो ओर फैली हुई है | हम तुरन्त रुमाल निकलकर नाक पर रख लेते है ताकि बदबू को फेफड़ो में जाने से रोक सके | यहाँ हम इंतजार नहीं करते कि दुसरे ने रुमाल निकाला या नहीं हमें तो बस यह रहता है की हमें तुरंत बदबू भी तो बड़ी भयंकर है. हम दूसरो को ना देख, अपना प्रबन्ध करे कि कोई अवगुण हमारे अन्दर ना आ जाये | जैसे बदबू शरीर को बीमार कर देती है, ईसिस प्रकार अवगुणों की बदबू आत्मा को बीमार कर देती है | सफल वही होता है जो दूसरो को न देख, अपने मार्ग पर चलता रहता है | ऊँचे चरित्र वाला यदि हमें आस-पास या दूर-दूर तक कोई नहीं दखाई दे रहा, तो भी हमें अपने लक्ष्य पर अडिग रहना है, क्योंकि यह भगवान का आदेश है |

कर्म करते गुणों का श्रंगार न भूले 

लौकिक पढाई में विद्यार्थियो की परीक्षा के पेपर जब चेक किये जाते है तो परीक्षक दो बाते देखता है, एक विषय के अनुरूप कितना लिखा हुआ है ? दूसरा,लिखाई कैसी है ? कई विद्यार्थियों की विषयवस्तु तो बहुत अच्छी होती है पर लिखी साफ़ न होने के कारण नम्बर कट जाते है | इसी प्रकार कई विद्यार्थी ऐसे होते है कि उनकी लिखाई तो अच्छी होती है परन्तु विषयवस्तु कमजोर होती है , तो भी नम्बर कट जाते है | अधिकतम नम्बर उसी को मिलते है जिसकी दोनों चीजे अच्छी हो | मानव का धर्म अर्थात धारणा  (सत्य,प्रेम,पवित्रता,दया,........) का पहलु तो बहुत ऊँचा हो पर वो कर्म ठीक ना करे या बिलकुल भी ना करे या कर्म में दूसरो पर आधारित रहे तो उसके भी नम्बर कट जाते है और यदि कोई कर्म खूब करे पर कर्म करते गुणों की धारणा भूल जाए तो भी उसके नंबर कट जाते है | पुरे नंबर तभी  मिलते है जब कर्म करते हुए गुणों की धारणा को बनाये रखा जाए | कर्म की जल्दबाजी में धर्म को अर्थात गुणों के श्रंगार को भूलना नहीं चाहिए |
कूलर में भी दो आप्शन होते है, एक हवा का और दूसरा पानी का | हम चाहे तो केवल हवा ले और चाहे तो हवा के साथ पानी की ठंडक भी अनुभव करे | जब हवा के साथ पानी की ठण्डक मिल जाती है तो गर्मी में ज्यादा आरामदायक लगती है | इसी प्रकार कर्म करके हम मानव को सुख देते है परन्तु उस कर्म में यदि गुणों का समावेश हो जाए तो बुराइयों से तपते मानव को अधिक आराम महसूस होता है | जीवन में कर्म के साथ धर्म को जोधने से वह अधिक उज्ज्वल बन जाता है |
शिव भगवानुवाच :- “आजकल की दुनिया में धर्म और कर्म – दोनों ही विशेष गाये जाते है | धर्म और कर्म  - ये दोनों ही आवश्यक है लेकिन आजकल धर्म वाले अलग , कर्म वाल्व अलग हो गए है | कर्म वाले कहते है कि धर्म  की बाते नहीं करो , कर्म करो और धर्म वाले कहते है कि हम तो है ही कर्म-सन्यासी | लेकिन संगम पर ‘धर्म और कर्म’ को इकठ्ठा करते है | धर्म का अर्थ है दिव्य गुण धारण करना चाहे कैसी भी जिम्मेवारी का कर्म हो, स्थूल कर्म हो,साधारण कर्म हो या बुद्धि लगाने का कर्म हो लेकिन हर कहावत है कि ‘एक म्यान में दो तलवारे नहीं रह सकती’ अथवा ‘एक हाथ में दो लड्डू नहीं आते’ लेकिन संगम पर असंभव बात संभव हो जाती है | यहाँ एक ही समय पर ‘धर्म भी हो और कर्म भी हो’ – इसका ही अभ्यास सिखलाते है | कर्म में यदि धर्म कम्बाइंड नहीं तो साधारण कर्म रह गया न इसलिए हर कर्म में धर्म का रस भरना चाहिए | यह चेक करना पड़े कि धर्म को किनारे कर कर्म कर रहे है अथवा धर्म के समय कर्म को किनारे तो नहीं कर देते है ? धर्म को छोड़ कर्म में लग गए, यह भी निवृति मार्ग हो गया | तो सदा प्रवृति  मार्ग रहे | ऐसा अभ्यास जब सबका सम्पन्न हो जाए तब समय भी संपन्न हो” |


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  1. Thank you baba, aisa site muje milgaya Khushi huyi. jaisa baba godh me hu. woh woh baba woh

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