हमारे लिए जीवन में सत्य बहुत मायने रखता है,हमारा जीवन सत्य विचार से भरा होगा तो , हमारे जीवन में खुशिया ही खुशिया रहेंगी | सत्य ही दुर्गुणों को नाश कर सकता है सत्य ही जीवन का एक सत्य है, सत्य ही ईश्वर है, |
सदियो से एक विचार संसार में फैलता रहा है की यह जगत मिथ्या है, कारागृह है , असार है, इसका सुख कागविष्ठा सामान है , यहाँ सब कुछ बंधनकर्ता है, अर्थहीन है | अक्सर जो लोग भक्ति करते है, वे भगवान् से यही प्रार्थना करते है की हमें भाव के फेरे से छुडाओ , चौरासी के चक्र से निकालो | इसलिए कई घरबार और देह सम्बन्धो को छोड़ संन्यास ले लेते है कि हम ऐसी शधना करेंगे सिस्से मोक्ष मिल जाये | जब कभी भी महात्मायें ,धर्मात्माये, योगी-संतजन शरीर धारण करना और छोड़ते है तो कहा जाता है कि वे पार निर्वाण चले गए,लौ में लीन हो गए | ऐसा भी माना जाता रहा है कि बारम्बार शरीर धारण करना और छोड़ना यह हमारे ही पापकर्मो की सजा है | हम जो कुछ करते है उसका धर्मराज के दरबार में चित्रगुप्त के चौपड़े में (बही-खाते में) हिसाब-किताब रखा जाता है और उसके दंडरूप आत्मा को इस मोह-माया भरे संसार में दुखो को भोगने के लिए भेजा जाता है |
खुदा से नाराजगी
कई लोग संसार के वर्तमान स्वरुप को देख खुदा पर भी नाराज हो जाते है की आपने ऐसी दुनिया क्यों बनायीं ? वे सोचते है , संसार यदि अनादि काल से ही सुख-दुःख , हार-जीत दैवी-आसुरी वृत्तिके संघर्ष का खेल रहा है तो ऐसे संसार का क्या अर्थ है ? स्पष्ट है, इस प्रकार की सोच रखने वाले जहाँ है, वहां वे पूरा मन लगाकर जी नहीं पा रहे है | अपने जीवन,परिवार , समाज-संसार को सकरात्मक रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहे है तथा उसमे कुछ और अच्छा, उत्तम,सुन्दर जोड़ नहीं पाते है |
जीवन से छूटने की
बाते क्यों ?
विचार चलता है कि मनुष्यत्मा, जिसे समस्त प्राणिजगत में सर्वश्रेष्ठ बुद्धिशाली कहा जाता है , ही क्यों अपने जीवन और दुनिया से तंग है ? परेशां होकर वो ही क्यों जीवघात(खुदखुशी) कर लेता है ? और कोई प्राणी तो ऐसा नहीं करता है ! जो प्राणी जैसे है उसी रूप में रसपूर्वक जी रहे है, मनुष्यत्माये ही क्यों इस संसार में आने से कतराते है या सदा के लिए छुट जाना चाहते है ? एक विचार अनुसार, पशु योनिको भोग-योनि , सजा-योनि समझा जाता है और मानव जीवन को दुर्लभ, अनमोल, हिरेतुल्य बताया जाता है | तो ऐसे जीवन से और जहाँ हम जी रहे है उस संसार से, सदा-सदा के लिए छुट जाने की, भाग निकलने की बाते क्यों की जाती है ?
जरुरत है मान्यताओं पर पुनर्विचार की
लगता है,कुछ सूत मूंझा हुआ है | हमें इन बातो पर गौर करके तथ्य निकालना चाहिए , सत्य समझना चाहिए | एक तथ्य यह है की सुखी व्यक्ति तो जीवन से छुटने की बाते कभी नै करते है | जो दुखी, असफल होते है वे ही कार्यक्षेत्र से छुट जाने की बाते करते है | स्पस्ट है की हम दुखो से छुटना चाहते है, न की दुनिया से | अज्ञानता से मुक्त होना चाहते है, अथार्थ ज्ञानी बन जीना चाहते है | मानव जीवन प्रभु उपहार है | दुखपूर्ण,बंधनकर्ता कैसे हो सकता है | अवश्य ही मान्यताओं पर, मिथकों पर पुनर्विचार करने की जरुरत है | समझदार इन्सान को तो और ही संसार को सुन्दर बनाने के पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए |
कुदरत की सी अनुपम रचना-संसार खेल को और श्रंगारना चाहिए, सम्रद्ध , सुखपूर्ण बनाना चाहिए| अगर कोई अवरोध है, रूकावटे है तो उन्हें दूर करना चाहिए, न की उनसे नफरत कर दूर हो जाने की बात करनी चाहिए मनुष्य तो चुनौतियों को पार कर सदैव मंजिल पर पहुँचने की ख्वाहिश रखता है | तो हम सबको भी मिलकर संसार को स्वर्ग बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए | सूक्ष्मता से सोचने पर समझ में आत अहै की हमारी अज्ञानता (जीवन और जगत संबधित मुलभुत सत्यों के ज्ञान का आभाव ) ही सभी संघर्षो और नकारात्मक भावो का मूल कारण है | इस मुलभूत अज्ञानता को मिटाना है |
सद्गुण बनाते है
स्वर्ग और दुर्गुण नरक
सत्यता यह है की स्वर्ग कोई ऊपर आसमान में नहीं है, नरक कोई पाताल में नहीं है | अज्ञान, मिथ्या ज्ञान और देह्भंजनित विषय-वासनाओं से हमने ही इस दुनिया को नर्क बना दिया है, अब हमें ही सत्यज्ञान के आधार पर दिव्यगुणों को धारण कर इसे स्वर्ग बनाना है | जैसे , जिस घर-परिवार में सदस्य आपस में मिलजुल कर प्रेम, शुभभावना , सहयोग से रहते है और घर में शांति, आनंद,सौहार्द का वातावरण बना रहता है तो हम कहते है की इनके घर में तो स्वर्ग है | इसके विपरीत, जिस परिवार में लड़ाई-झगड़ा, निंदा-परचिन्तन, अपशब्द होते है तो हम कहते है की इनका घर तो नरक बन गया है | व्यक्ति के सम्बन्ध में भी, जो व्यक्ति शांत-शीतल, मधुरभाषी ,सुखदाई होता है तो हम कहते है की यह तो जैसे देवी/देवता है | वही अगर कोई गुस्सा ,अहंकार,इर्ष्या,द्वेष करता है तो हम कहते है की यह तो राक्षस है | हमारे इस प्रकार के कथन से स्पस्ट होता है कि सद्गुण संसार को स्वर्ग बनाते है और दुर्गुण संसार को नर्क बनाते है |
पुरानी बनाई नहीं
जाती ,हो जाती है
कोई भी वस्तु जब बनायीं जाती है,नई होती है , समय और प्रकृति के संसर्ग में आकर धीरे-धीरे पुराणी होती जाती है | पुरानीकभी पैदा नहीं की जाती , हो जाती है | इसी प्रकार संसार अपने आदि स्वरुप में सत्य , था श्रेष्ठ था, सुखो से भरपूर था, धीरे-धीरे झूठा,भ्रष्ट और दुख्प्रधन बन गया है | हम सभी भी अपने जीवन को, समाज को , समस्त जगत को सुव्यवस्थित , सम्रद्ध और स्वस्थ देखना चाहते है | हमारी यह इच्छा ही सिद्ध करती है की जरुर हमने कभी ऐसे जीवन,समाज,संसार का अनुभव किया है तब तो फिर पाने की कामना करते है | मनुष्यात्माअपनी हर कृति को सर्वोतम बनाना चाहता है तो कुदरत की यह रचना समस्त कायनात भी अवश्य ही अभूतपूर्व ही है, सिर्फ समय के चक्र को, उसके प्रभाव को समझने की आवश्यकता है |
जगत में हम कुछ
सुन्दर, सत्य , शुभ बढाकर जाये,
आइये , हम सब अज्ञान को छोड़,सद्ज्ञान को;दुर्गुणों को छोड़, सद्गुणों को;पापकर्मो को छोड़, सत्कर्मो को धारण करे | अगर संसार अभावो,पीड़ाओ से भरा हुआ है, तो भी है तो अपना ही घर, अपना ही संसार | उसको सुन्दर सुखपूर्ण, आनंदमय, स्वस्थ बनाना हमारी ही जिम्मेवारी है जगत में हम आये है तो कुछ सुन्दर, सत्य, शुभ बढ़ाकर जाए,| कलह-क्लेश,द्वेष न बढ़ाये | हम सुखो, फीके नहीं लेकिन सदभावनाओं से भीगे-भीगे, हरे-हरे बनकर जीये| हम फिर-फिर इस स्रष्टि रंगमंच पर आते रहे और कुछ सुन्दर , शुभ सत्य,पवित्र उसमे बढ़ाते रहे | दुनिया की फिल्मो में जो एक्टर बनते है वे हीरो बनने का लक्ष्य रखते है | हम सभी भी इस बेहद विश्व नाटक में अपनी भूमिका सर्वोत्त्तम निभाएं और हीरो बन जाए | केवल वो एक्टर ही संन्यास लेते है जो श्रेष्ट प्रदर्शन नहीं कर पाते है |
बढ़ाएं कर्म की
गुणवत्ता
उचित तो यह है की हम अपने कर्म की गुणवत्ता बढ़ाये | महँ आत्माओं का, पुण्यात्माओ का, धर्मात्माओ का तो पूरा जीवन त्याग, तपस्या और सेवाकार्य से भरपूर रहता है | सम्पूर्णता प्राप्त करने के बाद इस कर्मक्षेत्र पर उतरकर अपनी क्षमताओं को अभिव्यक्ति कर संसार को जीने योग्य बनाने की श्रेष्ठ भूमिका अदा करने का समय आता है | जैसे पढ़े-लिखे ,होशियार,सफल , कला-कौशलवान व्यक्ति से तो हर कोई श्रेष्ठ , नवीन, सुंदर,कल्याणमय सर्जन की, आयोजन की अपेक्षा रखते है | ऐसे ही महान संतो, ऋषियों, धर्मात्माओं, महात्माओ से तो उत्तम कर्मो की, सुखमय संसार के सर्जन की अपेक्षा की जायेगी, न की कर्मक्षेत्र से पलायन कर जाने की या सुषुक्त हो जाने की |
संसार को कोसने के बजाये आत्मशक्ति विकसित करे
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