मर्यादा पुरुषोत्तम ही हमारा आवश्यक कर्म है |
जिस प्रकार किनारों
के बाहर बहने वाली नदी हो या सागर, किसी का भला नहीं कर सकते, वे जहाँ से भी
बहेंगे अधिसंख्य का अनर्थ ही करेंगे, उसी प्रकार मानत पर चलकर नियम अथवा मर्यादाओ
का उल्लंघन करने वालो को अल्पकाल का लाभ अवश्य दिखाई देता है परन्तु दुष्परिणाम
अधिक और दूरगामी होते रहे है | ऐसे लोगो की स्थित अधिकंसत: ऐसी होती है की वे मुख
से गेट है और दिल से रोते है | ऊपर से लगेगा की कितने खुश है और दुसरो को खुश करते
है परन्तु स्थिति लगभग एक सर्कस के जोकर की तरह हो जाती है जो अपने करतबों से
दुसरो को तो हंसाता है परन्तु उसका हाल-ए दिल से पुचो तो वह मायूस मिलता है |
यादगार शास्त्र रामायण में दिखाया है की सीता द्वारा मर्यादा उल्लंघन की गई तो वह
दुखो में फस गई |
किसी कारणवस किसी को
अगर अवसर नहीं मिलता तो हीनभावना लाने की या अमर्यादित होने की आवश्यकता ही क्या
है ? हाँ, नम्रतापूर्वक अपनी बात राखी जा
सकती है | इस सन्दर्भ में एक प्रेरक प्रसंग है- तत्कालीन कोलकाता के प्रेसीडेंसी
कॉलेज में दाखिला से पहले प्रवेश परीक्षा
में सफल होना जरुरी था | उस कॉलेज के प्राचार्य यूरोपियन थे| सन 1906 में
वे परीक्षा का परिणाम घोषित कर दिए जाने
पर क्लास के कोने में बैठा एक विद्यार्थी उठ खड़ा हुआ | उसने नम्रतापूर्वक कहा,सर
आपने मेरा नाम घोषित नहीं किया ? प्राचार्य ने कहा की असफल विद्यार्थियों का नाम
से सूची में नहीं होता |उस विद्यार्थी ने कहा की सर, मुझे यकीन है की मैंने
सर्वाधिक अंक प्राप्त किये होंगे | यह सुनकर प्राचार्य नाराज हो गए और उन्होंने 10
रूपए दंड के रूप में देने का आदेश दे दिया | तभी कॉलेज का क्लर्क दौड़ता हुआ आया और
कहा की सर, यह विद्यार्थी प्रवेश परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाला
विद्यार्थी है, इसका नाम गलती से सूचि में नहीं है | प्राचार्य ने विद्यार्थी की
और देखा तो उसका चेहरा आत्मविश्वास से दमक रहा था | यही विद्यार्थी स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डा० राजेंद्र
प्रसाद बने | कॉपी में उनके परीक्षक ने लिखा , परीक्षक से परीक्षार्थी अधिक योग्य
है |
अतः बहुत अधिक जिद्द
और सिद्ध करने की बजाये आत्मविश्वास को साथी बनाओ, अभिमान का त्याग करो और अपने
स्वमं में स्थित रहो | सारे संसार का कल्याण करने से पहले स्वयं के कल्याण की भी
तो सोचो | स्वयं का कल्याण होने पर दुसरो का कल्याण स्वत: ही हो जायेगा | शरीर के
आने-जाने की सीमाए होती है लेकिन मन में सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावनाओ की तो कोई
सीमा ही नहीं है मनसा सेवा सारे जगत का एक ही साथ कल्याण करा सकती है | रहिमन हिरा
कब कहे लाख टका मेरो मोल लोग हीरे का मूल्य उसकी चमक के आधार से निर्धारित करते
है, हिरा कभी अपनी कीमत बताता | वह तो जहाँ भी रखा जाएगा अपना ही नूर बिखेरेगा |
किसी राजा के सर के ताज में होगा तो भी चमक बिखेरेगा , धुल में पड़ा होगा तो भी चमक
बिखेरेगा , किसी कब्र पर लगा होगा तो भी चमक ही बिखेरेगा | इसी तरह जले हुए दीपक
का कार्य भी प्रकाश देना है, वह जहाँ भी जलेगा प्रकाश ही देगा | अगरबत्ती जहाँ भी
जलेगी सुगंध ही देगी | पुष्प जहाँ भी होगा, खुशबु ही बिखेरेगा |किसी कूड़े के ढेर
पर पटक डोज तो भी खुशबु देगा, शव पर श्रद्धांजलि डोज तो भी खुशबु ही देगा, मसल
दोगे तो भी खुशबु ही देगा | इसलिए हे मास्टर ज्ञानसूर्य, नाम-मान-शान के अल्पकालीन
टिमटिमाते दीपकों से स्वयं को प्रकाशित करने का क्षुद्र संकल्प मत करो | तुम्हे ही
मर्यादाओ में चलने वाला मर्यादा पुरुषोत्तम बनना है | जब तुम ऐसा बन जाओगे तो लोग
तुम्हे इस रूप में याद रखेंगे | तुम संसार के पूज्यनीय बन जाओगे | अतः हे
शांतिदूत, अपनी मर्यदा में रहो, किसी मर्यादा का उल्लंघन मत करो |
Comments
Post a Comment