वर्तमान समय कि परिस्थितियो और वातावरण को देखते हुए सबसे सहज, सगल ,
कमखर्च बालानशीन सेवा है मनसा सेवा | इसका अर्थ है, सकारात्मक, श्रेष्ठ,पवित्र
,शक्तिशाली विचारो से प्रक्रति , व्यक्ति और वातावरण को पवित्र और शक्तिशाली बनाना
| इस प्रकार कि सर्वोच्च सेवा कौन कर सकता है ? जो मै और मेरे- पन के नकारात्मक
भाव से सदा मुक्त है इस सम्बन्ध में एक कहानी याद आती है –
किसी पुराने मकान में चूहे हो गए थे | एक दिन एक बिल्ली ने दो चूहों
को पकड़ कर अपना भोजन बना लिया | धीरे-धीरे चूहों कि संख्या कम होने लगी | सभी सभी
चूहे चिंता में पड़ गए कि हमें कौन बचाएगा | आखिर उन्होंने मिलकर पंचायत कि कि कैसे
बिल्ली को यहाँ से बगाया जाये | एक नौजवान चूहा कहने लगा , देखो भाइयो , सभी मिलकर
बिल्ली का मुकाबला करो | मै सबसे आगे चलूँगा बिल्ली का एक कान पकड़ कर फिर नहीं
छोडूगा | दूसरे ने कहा, मै दूसरा कान पकड़ लूँगा | तीसरे ने कहा , मै टांग पकड़
लूँगा | इस प्रकार से कई चूहों ने बिल्ली के भिन्न-भिन्न अंगो को पकड़ने कि बात
सुनाई | तभी एक बुढा चूहा जो बहुत बुद्धिमान और विचारवान था, कहने लगा , अब तक आप
में से किसी ने भी यह नहीं बताया कि म्याऊ का मुख कौन पकड़ेगा? जब तक म्याऊ (मै) का
मुख काबू नहीं होगा तब तक सबकी वीरता बेकार है | बूढ़े चूहे कि बात पूरी होते-होते
बिल्ली आ गई | उसे देखते ही सभी जान बचने लिए इधर –उधर भागने लगे, फिर भी बिल्ली
ने एक- दो को पकड़ ही लिया |
यही दशा आज मानव मात्र कि है | आज मानव मात पर कोई जाप कर रहा है, कोई
कोई हवन, कोई जागरण,कोई व्रत कर रहे है, पर यह विचार किसी को नहीं आता कि म्याऊ
(मै) को कैसे काबू में करे ? जब तक “मै” से मुक्त नहीं होंगे तो विकर्माजीत,
प्रक्रतिजीत, कर्मेंद्रिजीत कैसे बनेंगे? किसी ने ठीक ही कहा है
माला जपूँ न कर जपूँ,मुख ते कहूँ न राम
मन मेरा सुमिरणकरे, कर पावे विश्राम
वाणी के साथ मन का मौन करे
प्रश्न उठता है कि मन में क्या सुमिरण करे ? पहले स्वयं प्रति शुभ
भावना रखे अर्थात विचार करे कि मुझे जो शरीर, सम्बन्धी, वस्त,स्थान आदि मिले है
उनसे हर हाल में संतुष्ट रहना है , खुश रहना है | जो स्वयं से सम्पूर्ण संतुष्ट है
वही संसार कि सभी आत्माओ प्रति तथा प्रकृति के प्रति शक्तिशाली संकल्पों से श्रेष्ट
तरंगे (वायब्रेशन) दे सकता है | मनसा सेवा तभी कर सकते है जब संसार कि किसी भी
आत्मा के प्रति मन में कोई कड़वाहट, दाग अर्थात नकारात्मक भाव न हो किसी ने कैसा भी
बोल बोला,व्यवहार किया फिर भी उसको निर्दोष मानकर यह मन ले कि उसका रोल निश्चित है
एवं मुझ आत्मा द्वारा पिछले किसी जन्म में जाने-अनजाने किये गए किसी कर्म का ही
परिणाम है | इसी प्रकार प्रकृति को सतोप्रधान बनने कि सेवा तभी कर सकते है जब
उसके तत्वों के प्रति भी कोई नकारात्मक न
हो चाहे आज तत्व तमोप्रधान हो गये है , दुःख भी देते है पर इनके बिना हम जीवन जी नहीं
सकते | तो प्रकृति के तत्वों को भी शुभ संकल्पों कि तरंगे दे | जितना हम तत्वों को
सतोप्रधन बनने कि सेवा करेंगे उतना प्रकृति हमारी सहयोगी बनेगी, हमें सुख देगी |
तो हमें स्वयं प्रति , सभी आत्मिक भाइयो प्रति, प्रकृति प्रति सदा शुभ सोचने कि
मनसा सेवा अवस्य करनी है मनसा सेवा के लिए धन, समय शक्ति कि भी आवश्यकता नहीं है
और सुपरिणाम निचित है | मनसा सेवा के लिए कुछ मानसिक तैयारी करे, वाणी के मौन के
साथ मन का मौन करे \ मौन से मन कि शांति के द्वार तो खुलते ही है साथ ही उर्जा का
संचय भी हो जाता है मन का मौन बेहतर सोच, गहन सोच का सुअवसर प्रदान करता है |
महावीर,बुद्ध,जीसस और सुकरात ने मानवता के कल्याण के लिए अनेको बार
अमृत वचन उच्चारित किये परन्तु जितना वो बोले उससे अधिक मौन में रहे | मौन क्षणों
में उन्होंने गहरी अनुभूति कि | हमारी दादी जानकी जाग्रत अवस्था में भी मन का मौन
रखने के कारण ही विश्व कि स्थिरतम मन वाली महिला बन पाई | मौन अपने आप में
मंगलकारी स्थिति है | इस प्रकार मन, वचन के मौन से सदा मनसा सेवा में लगे रहे |
याद रखे , जीवन का कोई भाग व्यर्थ नहीं, जीवन का कोई श्वास ब्यर्थ नहीं |
सबके प्रति हो शुभ संकल्प
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