बेटी
बचाओ- बेटी पढाओ
बेटी- बेटा दोनों को सशक्त बनाओ
भारत के देशी महीनो में 15-15 दिन के शुक्ल पक्ष और
कृष्ण पक्ष आते है | इन 15 दिनों को अलग अलग तिथियो के नाम से जाना जाता है जैसे
कि एकम,दूज,तीज,चौथ,पंचम,छठ,सातम.....आदि | ये सभी तिथिय स्त्रीलिंग है | भले हम
साल में एक बार 8 मार्च को महिला दिवस मानते है परन्तु भारत का तो हर दिन ही
स्त्री दिवस है | भारत देश भी मातृभूमि है,न कि पितृभूमि | अतः इस देश में नारियो
का परचम लहराना निश्चित है |
दोहरी
मार
वर्तमान समय में नारी समस्याओ से जूझ रही है वह
दोहरी मार झेल रही है | एक तो समाज में से मूल्यों का क्षरणहो चुका है और दूसरी
ओरउसकी पालना, पढाई इस तरीके से हो रही है कि उसका मनोबल नहीं बढ़ता | वह समस्याओं
का सामना छाती ठोककर, आत्मविश्वास के साथ कर सके ऐसा आध्यात्मिकबल उसमे विकसित
नहीं हो पता | यह ऐसी स्थिति है कि महामारी के फैले भयंकर जीवाणुओ के बीच मानो
रोगप्रतिरोधक शक्ति विहीन व्यक्ति को बढाया जाये अर्थात समस्याओ के बीच खड़ी नारी
का मनोबल और अध्यात्मिक बल बढाया जाये |
22-24 वर्षो तक अर्जित ज्ञान किस काम का ?
एक इकलौती पुत्री (हम एक का उदाहरण ले रहे है ,
ऐसे मामलो से जूझती लाखो बहने दुनिया में है) बड़े नाजो से पत्नी , कार चलाना सीखी
है महंगे विद्यालयोंएवं महाविद्यालय में पढ़कर हिंदी इंग्लिश आदि भाषाओ कि जानकार
बनी स्वतंत्रतापूर्वक जहाँ चाहा वहां गई मनचाहा जेब खर्च पाया पार्लर आधुनिक
पहनावा सुख-सुविधा पार्टी सभी का सुख भोगते हुए बड़ी हुई | एक बड़े अधिकारी से शादी
हो गई | अधिकारी शादी से पहले तो ठीक था पर शदी के बाद शराब कि लत लग गई | रात को
देर से आना क्रोध करना कभी-कभी हिंसा पर उतारू होना-यह सब होने लगा | नाजो से पली
लड़की यह सब झेलने को मजबूर हो गई | सवाल यह है कि उसने पिता के घर से जो अर्जित
किया उनमे से कौन-सी चीज इस समस्या के समाधान के समय काम आएगी? क्या पार्लर के
पौडर से चमकता चेहरा, उसकी पढाई ,उसका भाषाई ज्ञान या दहेज़ के रूप में ढूढ़ ढूढ़ कर
इकठ्ठा करके लाया गया उसका सामान- फूलो वाली चादरे, कोमल गलीचे, झालर वाले तकिये,
सैकड़ो प्रकार के प्रसाधन- कौन सी चीज उसे उपरोक्त समस्या से निजात दिला सकती है ?
जिन चीजो के पीछे शादी से पहले के उसके 22-24 वर्ष गए उसकी पढाई डिग्री कला कौशल
कौन-सी चीज उसे उबार सकती है ?
निश्चित रूप से इनमे से कोई नहीं | हाँ एक रास्ता
तो यह है कि वह कोर्ट के माध्यम से छुटकारा पाए या बिना कोर्ट का सहारा लिए पीहर
घर आकर बिअथ जाये पर ये दोनों ही निर्विध्न रास्ते नहीं है | लोकलाज का भये,
अकेलेपन का भय छोड़ी हुई भागी हुई कहलाने का भय तो है ही भाई-भाभी के तानो का भये
भी है और सबसे बड़ा बंधन उसके अपने मन का मोह है | कि चाशनी से चिपका उसका मन उस
ब्यसनी से छुटना भी नहीं चाहता, उसके साथ रहना भी नहीं चाहता |
सुहाग और संतान- दोनों द्वारा शोषित
ऐसी पीडिता को कुछ लोग यह रायदिया करते है कि कोई
बात नहीं, थोड़े दिन सहन कर ले एक बच्चा हो जाने दे, फिर सिकी बुद्धीठीक हो जाएगी
बच्चे में मोह पडेगा तो सुधर जायेगा _ यह तर्क कितना ठीक है, आइये, इस पर विचार कर
ले| आज तो विज्ञानं का युग है | सभी जानते है कि माता-पिता के मन (चरित्र) और तन
(रोग आदि) का प्रभाव संतान पर स्पष्ट परिलक्षित होता है | एक ब्यसनी, कक्रोधी,
इन्द्रियों के गुलाम, चरित्रहीन, दुर्गुणी और इनके फलस्वरूपरोगों कि सम्भावना से
भरे शरीर (भले आज रोग परिलक्षित न हो रहे हो) वाले व्यक्ति के इन समस्त दुर्गुणों
का प्रभाव क्या उसकी संतान पर न होगा? घर के कलह क्लेश से भरे वातावरण में जन्म
लेने और पलने वाले बालक का क्या संतुलित विकास हो पायेगा? कोई गारंटी तो नहीं कि
बच्चे का मुहं देखने मात्र से बाप कि रहे बदल जाये इस प्रकार तो उस नारी के जीवन
में दोहरे कांटे बोये जायेंगे | पति को झेलने के साथ-साथ उसे संतान को भी झेलना
पड़ेगा | आज के समय में ऐसी महिलाओ कि लम्बी पंक्ति देखने को मिल रही है जो सुहाग
और संतान दोनों द्वारा शोषित और उपेक्षित है | कुछ लोग यह राय दिया करते है कि बच्चे के जवान होने पर बाप
को शर्म आने लगेगी अतः किसी तरह बच्चे को बड़ा कर ले फिर सब ठीक हो जायेगा | लेकिन
बहुत बड़ा विचारणीय सवाल यह भी है कि मानव जीवन का सबसे सक्रिय हिस्सा तो 20 से 40
वर्ष कि आयु के बीच का माना जाता है कर्मठता से भरे उम्र के इस हिस्से को वह रोते
सहते दबते पिसते भविष्यकि आश में पार करे, पर क्यों? उसके वर्तमान का क्या होगा?
उसके वर्तमान को समाजोपयोगी बनाने का क्या हमारे पास कोई मार्ग नहीं? वह जिन्दगी
के सुनहरे 20 वर्षो को दुसरे के कंधो पर धोते हुए उन्हें मुर्दा क्यों बनाये
अनिश्चित आशाओके चप्पुओ से जीवन कि नाव क्यों खेवे? क्या मनुष्यों कि भीड़ से भरे
इस समाज के पास वर्तमान में उसके लिए कोई निरापद और सुकुंकारी मार्ग नहीं है ?
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