परचिन्तन पतन कि जड़
मनुष्य का
मन सदा कुछ न दुच चिंतन तो करता ही रहता है | जैसा चिंतन वह करता है वैसा उसका
स्वभाव बन जाता है कुछ लोग तो दुसरो के प्रति कल्याण कि भावना रखते हुए अपने विकास
में ही अपना समय और अपने संकल्प सफल करते है वे दुसरो से भी गुण ही लेते है |वे
स्व-चिंतन करते हुए आत्मानुभूति के रस में लवलीन रहते है , पर –चिंतन करके अपने मन
को मैला नहीं करते |
आत्मिक
शक्ति के विकास के लिए आत्म-चिंतन आवश्यक है |आत्म –विस्मृति के कारण मनुष्य शरीर
से अपना तादात्मय स्थापित कर लेता हिया और घोर देहभान में फँसकर विकारी दुखी और
अशांत हो जाता है | तब आत्म –चिंतन द्वारा ही वह आत्माभिमानी और निर्विकारी बनकर
सच्ची सुख-शान्ति कि प्राप्ति कर सकता है | मै पांच तत्वों का बना विनाशी सरीर
नहीं वरन सदा जगती ज्योती सर्वशाक्तिवन परमपिता परम आत्मा शिव कि संतान
ज्योतिबिंदु आत्मा हूँ इस सत्य कि गहरी अनुभूति हो जाने से हमारे जीवन में एक
दिव्या और अलौकिक परिवर्तन आता है |
सर्वशक्तिमान
परमात्मा कि संतति होने पर बी हम असक्त और असमर्थ कैसे हो सकते है? आनंद के सागर
और शान्ति के सागर कि संतान हम दुखी और अशांत क्यों है ? प्रेम के सागर परमात्मा
के बच्चे भला आपस में लड़-झगड़ कैसे सकते है ? इस तरह गुणों के सगर परमात्मा के
दिव्य क चिंतन करने से वे गुण हमारा स्वभाव बनते जाते है और धीरे-धीरे हम सर्वगुण
सम्पन्न बन जाते है | अत: आत्म चिंतन और ईश्वरचिंतन ही आत्म कल्याण का एकमात्र
साधन है |
निर्विवाद
सत्य है कि मनुष्य दुसरो में वही अवगुण देखता है जो स्वयं उसमे विद्यमान रहता है
बाह्म संसार दर्पण मात्र है जो हमारी आत्म को सत्य रूप में प्रतीबिम्बित करता है
उस दर्पण में वास्तविकता का दर्शन कर सकते है | अर्थ लोलुप व्यक्ति को सभी लोग घोर
भौतिकवादी प्रतीत होंगे और विषयी को साडी स्रष्टि काम पीड़ित द्रष्टिगत होगी | जब हम
किसी कि ओर एक अंगुली उठाते है तो बाकि चार अंगुलिया स्वत: ही हमारी ओर उठ जाति है
| यह भी सिद्ध करता है कि दुसरे में जो अवगुण हम देखते है वह हममे उससे चार गुना
है अधिक विद्यमान है | अत: अध्यात्मिक साधको को पर चिद्रन्वेंष्ण न करे उन अवगुणों
कि जड़ अपने में ही खोजनी चाहिए |
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